वर्णों के उच्चारण
हिंदी वर्णमाला में प्रत्येक स्वर एवं व्यंजन को वर्ण की संज्ञा देते हैं। वे वर्ण जिनका उच्चारण अन्य ध्वनियों की सहायता के बिना हो उसे स्वर कहते हैं। तथा जिनका उच्चारण स्वर की सहायता से होता है उन ध्वनियों को व्यंजन कहते हैं। वर्णों के उच्चारण के आधार पर स्वर एवं व्यंजन ध्वनियों का वर्गीकरण निम्नलिखित रूपों में किया जा सकता है।
स्वरों का वर्गीकरण
हिन्दी में स्वर ध्वनियों का वर्गीकरण मुख्य रूप से तीन आधारों पर किया गया है-
1)जिह्वा की ऊँचाई
2)जिह्वा की स्थिति
3)होठों की आकृति
जिह्वा की ऊँचाई के आधार पर वर्णों के उच्चारण
जिह्वा की ऊँचाई के आधार पर स्वरों को चार वर्गों में विभक्त किया गया है-
1) संवृत
2) अर्धसंवृत
3) अर्धविवृत
4) विवृत
1) संवृत
जिन स्वरों के उच्चारण में जिह्वा का जितना अधिक भाग ऊपर उठता है, उससे वायु उतनी हो संकुचित होकर बिना किसी रुकावट के बाहर निकलती है । इससे उच्चरित होने वाले स्वर संवृत कहलाते हैं। इ, ई , उ, ऊ संवृत स्वर हैं।
2) अर्धसंवृत
जिन स्वरों के उच्चारण में जिह्वा का भाग कम ऊपर उठता है और वायु मुखविवर में कम संकुचित होती है। इससे उच्चरित स्वर अर्धसंवृत कहलाते हैं। ए और ओ अर्धसंवृत स्वऱ हैं।
3) अर्धविवृत
जिन स्वरों के उच्चारण में जिह्वा अर्धसंवृत से कम ऊपर उठती है और मुखविवर में वायु मार्ग खुला रहता है। इससे उच्चरित स्वर अर्ध विवृत स्वर कहे जाते हैं। अ, ऐ और ओ अर्धविवृत स्वर हैं।
4) विवृत
जिन स्वरों के उच्चारण में जिह्वा मध्य में स्थित होती है और मुखविवर पूरा खुला रहता है, ऐसे उच्चरित स्वर को विवृत कहते हैं। ‘आ ‘ विवृत स्वर है
जिह्वा की स्थिति के आधार पर वर्णों के उच्चारण
किसी स्वर के उच्चारण में जिह्वा की स्थिति के आधार पर स्वरों के तीन भेद किए जाते हैं-
1) अग्र स्वर,
2) मध्य स्वर,
3) पश्च स्वर।
1) अग्र स्वर
जिन स्वरों के उच्चारण में जिह्वा का अग्रभाग सक्रिय होता है, ऐसे उच्चरित स्वर को अग्रस्वर कहते हैं। हिंदी में इ, ई, ए , ऐ अग्रस्वर हैं ।
2) मध्य स्वर
जिन स्वरों के उच्चारण में जिह्वा का मध्य भाग सक्रिय होता है, ऐसे उच्चरित स्वर को मध्य स्वर कहते हैं । हिंदी में ‘अ’ मध्य स्वर है।
3) पश्च स्वर
जिन स्वरों के उच्चारण में जिह्वा का पश्च भाग सक्रिय होता है, ऐसे उच्चरित स्वर को पश्च स्वर कहते हैं । हिदी में उ, ऊ, ओ, औ एवं आ पश्च स्वर हैं ।
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होठों की आकृति के आधार पर वर्णों के उच्चारण
किसी स्वर के उच्चारण में होठों की आकृति के आधार पर स्वरों को दो वर्गों में रख सकते हैं –
1) गोलीय ,
2) अगोलीय।
1) गोलीय-
जिन स्वरों के उच्चारण में होंठ की स्थिति कुछ गोलाकार होती है, ऐसे उच्चरित स्वर को गोलीय कहते हैं। उ, ऊ , ओ, ओ, आ गोलीय स्वर हैं। (अंग्रेजी से आए हुए 0 स्वर के लिए ऑ का उच्चारण होता है, जैसे-डॉक्टर, नॉर्मल आदि। )
2) अगोलीय
जिन स्वरों के उच्चारण में होंठ की स्थिति गोलाकार नहीं होतीं है, ऐसे उच्चरित स्वर को अगोलीय कहते हैं। अ, आ, इ, ई, ए और ऐ अगोलीय स्वर हैं।
(नोट: कुछ व्याकरणशास्त्री एक और वर्ग करते हैं उदासीन। उदासीन स्वर के अंतर्गत ‘अ’ को रखते हैं ।)
3) व्यंजन ध्वनियाँ
परम्परागत व्याकरण में जिन ध्वनियों का उच्चारण स्वतः होता है और उसके उच्चारण में किसी अन्य ध्वनि की आवश्यकता नहीं होती, उसे स्वर तथा जिन ध्वनियों के उच्चारण के लिए स्वर की सहायता लेते है उन ध्वनियों को व्यंजन कहा गया है। जिन ध्वनियों के उच्चारण में मुखविवर में कहीं न कहीं वायु का अवरोध हो उसे व्यंजन ध्वनि कहते हैं।
वर्णों के उच्चारण स्थान के आधार पर वर्गीकरण
परम्परागत व्याकरणशास्त्रियों की दृष्टि से व्यंजन ध्वनियों को स्पर्श, अंतस्थ एवं ऊष्म वर्गों में रखा गया है। स्पर्श के अंतर्गत सभी वर्गीय ध्वनियों (क वर्ग से प वर्ग तक कुल पच्चीस ध्वनियाँ) को रखा गया है, अंतस्थ के अंतर्गत य, र, ल, व को तथा ऊष्म ध्वनियों के अंतर्गत श, ष, स, ह को रखा गया है। यह वर्गीकरण आभ्यंतर प्रयत्न के आधार पर किया गया है। आधुनिक भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से व्यंजन ध्वनियों का वर्गीकरण, उच्चारण स्थान एवं उच्चारण प्रयत्न के आधार पर किया गया है।
किन ध्वनियों का उच्चारण मुखविवर के किस स्थान से हो रहा है, इसके आधार पर द्वयोष्ठय, दंत्योष्ठ्य, दंत्य , वर्त्स्य, मूर्धन्य , तालव्य, कण्ठ्य और काकल्य आदि ध्वनियाँ निर्धारित की गई हैं। इन व्यंजन ध्वनियों के उच्चारण में वायु का दबाव कम होता है अथवा अधिक। इसके आधार पर व्यंजन ध्वनियाँ अल्पप्राण होती हैं अथवा महाप्राण इन्हें उच्चारण स्थान के आधार पर इस प्रकार वर्गीकृत किया गया है।
द्वयोष्ठय
जिन व्यंजन ध्वनियों का उच्चारण दोनों होठो के स्पर्श से होता है उन ध्वनियों को द्वयोष्ठय ध्वनि कहते हैं। हिन्दी में प फ, ब, भ, म, व द्वयोष्ठय व्यंजन हैं ।
दंत्योष्ठय
जिन व्यंजन ध्वनियों का उच्चारण ऊपरी दाँत एवं निचले होंठ के स्पर्श से होता है, ऐसे व्यंजन ध्वनियों को दंत्योष्ठय ध्वनि कहते हैं। हिन्दी में दंत्योष्ठय व्यंजन नहीं पाये जाते। इस प्रकार की व्यंजन ध्वनियाँ फारसी में ‘फ’ अंग्रेजी में f के रूप में विद्यमान हैं। हिन्दी की ‘व’ ध्वनि को कुछ ध्वनिविज्ञानी दंत्योष्ठय मानते हें परन्तु ‘व’ द्वयोष्ठय व्यंजन है।
वर्त्स्य
जिन व्यंजन ध्वनियों का उच्चारण वर्त्स अर्थात् मसूड़ों से किया जाता है, उन्हें वर्त्स्य व्यंजन कहा जाता है । इन ध्वनियों के उच्चारण में जिह्वा वर्त्स्य स्थान अथवा मसूड़ों को स्पर्श करती है। हिन्दी में जो पहले दंत्य ध्वनियाँ थीं वे आज वर्त्स्य ध्वनियाँ हैं ।
दंत्य
जिन व्यंजन ध्वनियों के उच्चारण में जिह्वा दाँत को स्पर्श करती है, ऐसे उच्चरित व्यंजन दंत्य कहलाते है । जैसे-त, थ, द. ध, न, स। दंत्य ध्वनियाँ दंत व वर्त्स दोनों के बीच उच्चरित होती हैं।
मूर्धन्य
जिन व्यंजन ध्वनियों का उच्चारण मूर्धा से होता है, उन्हें मूर्धन्य कहा जाता है। इनके उच्चारण में जीभ को कठोर तालु के पिछले भाग में स्थित मूर्धा का स्पर्श करना पड़ता है। ट, ठ, ड, ढ, ण, ड़ एवं द आदि मूर्धन्य व्यंजन है।
तालव्य
जिन व्यंजन ध्वनियों का उच्चारण तालू स्थान से होता है, उन्हें तालव्य कहते हैं। इनके उच्चारण में जीभ का अगला भाग तालू को छूता है,
जैसे-च , छ , ज , झ , ज्ञ, य तथा श।
कण्ठ्य
जिन व्यंजन ध्वनियों का उच्चारण कंठ से होता है, उन्हें कण्ठ्य व्यंजन कहते हैं। इन व्यंजनों के उच्चारण में जीभ का पिछला भाग कोमल तालू को छूता है । इसीलिए कुछ भाषा वैज्ञानिक कण्ठ्य व्यंजन को कोमल तालव्य व्यंजन मानते है। क , ख, ग, घ, ङ कण्ठ्य ध्वनियाँ हैं।
काकल्य
जिन व्यंजन ध्वनियों का उच्चारण काकल स्थान से किया जाता है, उन ध्वनियों को काकल्य कहा जाता है। इस ध्वनि के उच्चारण के समय स्वरतंत्री में कम्पन होता है। हिन्दी में ‘ह’ ध्वनि काकल्य व्यंजन है।
उच्चारण प्रयत्न के आधार पर वर्गीकरण
जिन व्यंजन ध्वनियों का वर्गीकरण उनके उच्चारण अवयव के द्वारा किए जाने वाले प्रयत्न के आधार पर किया जाता है, उन्हे उच्चारण प्रयत्न कहा जाता है। इसके अंतर्गत स्वरतंत्रियों में कम्पन होने अथवा न होने के आधार पर अघोष ओर सघोष ध्वनियों का निर्धारण होता है। उच्चारण प्रयत्न के आधार पर व्यंजन ध्वनियों को निम्नलिखित वर्गो में रखा गया है।
स्पर्श
व्यंजन ध्वनियों के उच्चारण में जिह्वा उच्चारण स्थान को स्पर्श करती है। जिह्वा के उच्चारण स्थान को स्पर्श करते समय वायु मुखविवर में अवरुद्ध होकर झटक से बाहर निकलती है। ऐसे प्रयत्न से उत्पन्न व्यंजन ध्वनि को स्पर्श ध्वनि कहते हैं। इनके अंतर्गत कण्ठ्य, मूर्धन्य , दंत्य, वर्त्स्य और ओष्ठय ध्वनियाँ सम्मिलित हैं। क, ख, ग, घ, ट, ठ, ड, ढ, त, थ, द, ध, प, फ, वे, भ स्पर्श ध्वनियाँ हैं।
स्पर्श संघर्षी
जिन व्यंजन ध्वनियों के उच्चारण में जिह्वा उच्चारण स्थान को स्पर्श करती है तथा मुखविवर से वायु घर्षण के साथ निकलती है। ऐसी उच्चरित ध्वनियों को स्पर्श संघर्षी व्यंजन कहते हैं, जैसे-च, छ, ज, झ।
संघर्षी
जिन व्यंजन ध्वनियों का उच्चारण करते समय मुखविवर में वायु सँकरे मार्ग से निकलती है, जिससे मुखविवर में घर्षण होता है। ऐसी ध्वनियाँ संघर्षी कहलाती है। जैसे-श, ष, स, ह।
पार्श्विक
जिन व्यंजन ध्वनियों के उच्चारण में जिह्वा दंत अथवा वर्त्स्य स्थान को छूती है, उस समय वायु जिह्वा के अगल बगल से बाहर निकलती है, उन ध्वनियों को पार्श्विक कहते हैं। हिन्दी में ‘ल’ पार्श्विक ध्वनि है।
लुंठित
जिन व्यंजन ध्वनियों के उच्चारण में जिह्वा एक या अधिक बार वर्त्स्य स्थान को स्पर्श करती है, उन्हें लुंठित ध्वनि कहते हैं। लुंठित को लोड़ित भी कहा गया है। हिन्दी में ’र’ लुंठित व्यंजन है।
उत्क्षिप्त
जिन व्यंजन ध्वनियों के उच्चारण में जिह्वा मूर्धा स्थान को शीघ्रता से स्पर्श करती है। उसे उत्क्षिप्त ध्वनि कहते हैं। हिन्दी में ‘ड़’ और ‘ढ़’ उत्क्षिप्त व्यंजन है।
नासिक्य
जिन ध्वनियों के उच्चारण में वायु मुखविवर में अवरुद्ध होकर नासिकाविवर एवं मुखविवर दोनों मार्ग से एक साथ निकलती है, ऐसी उच्चरित ध्वनियों नासिक्य कहलाती हैं। ङ,ञ, ण, न, म नासिक्य ध्वनियाँ हैं। म्ह, न्ह, ङह को महाप्राण नासिक्य कहा गया है। हिन्दी में इन महाप्राण नासिक्य ध्वनियों का शब्द का आरम्भ में प्रयोग नहीं होता। शब्द के मध्य और अंत में संहार, कुम्हार, कान्हा आदि शब्दों में इनका प्रयोग होता है।
अर्धस्वर
जिन ध्वनियों के उच्चारण के समय जिह्वा एक स्थान से दूसरे स्थान की ओर सरकती है और वायु मुखविवर को किंचित सँकरा बना देती है, ऐसी ध्वनि को अर्धस्वर कहते हैं। “य” और “व” अर्धस्वर हैं ।
घोषत्व
व्यंजन ध्वनियों में घोषत्व का आधार स्वरतंत्रियाँ हैं । जिन ध्वनियों के उच्चारण में स्वरतंत्रिर्यों में कम्पन हो, तो वे ध्वनियाँ सघोष कहलातीं हैं और यदि स्वरतंत्रियों में कम्पन न हो अथवा अत्यल्प कम्पन हो तो वे ध्वनियाँ अघोष कहलाती हैं।
जैसे-
अघोष-क, ख, च, छ, ट, ठ, त, थ, प, फ, श, ष, स और विसर्ग (:)।
सघोष-ग, घ, ङ, ज, झ, अ, ड, ढ, ण, ड़, ढ़, द, ध, न, ब, भ, म, य, र, ल, व, ह ।
(सभी स्वरों को जी .बी . धल आदि जैसे भाषाविद सघोष ध्वनि मानते हैं। )
प्राणत्व
प्राण का अर्थ होता है, वायु। ध्वनियों के उच्चारण में वायु का कम प्रयोग किया जाता है अथवा अधिक, इनके आधार पर ध्वनियों का प्राणत्व निर्धारित होता है। ध्वनियाँ या तो अल्पप्राण होती हैं या महाप्राण।
अल्पप्राण
जिन ध्वनियों के उच्चारण में प्राण अथवा वायु का कम अथवा अत्यल्प प्रयोग किया जाता है, उन्हें अल्पप्राण ध्वनि कहते हैं। व्यंजन ध्वनियों की वर्गीय ध्वनियों में प्रथम, तृतीय और पंचम अल्पप्राण ध्वनियाँ हैं। जैसे-क, ग, ङ, च, च, ज, ट, ड, ण, त, द, न, प, ब , म, य , र, ल, व अल्पप्राण व्यंजन हैं ।
महाप्राण
जिन ध्वनियों के उच्चारण में वायु का अधिक (अर्थात् अल्पप्राण की अपेक्षा अधिक प्रयोग) किया जाता है, उन्हें महाप्राण कहते हैं। हिन्दी में प्रत्येक वर्गीय ध्वनियों के दूसरे और चौथे व्यंजन अर्थात् ख, घ, छ, झ, ठ, ढ, थ, ध तथा फ, भ महाप्राण ध्वनियाँ हैं। इनके अतिरिक्त ऊष्म ध्वनियाँ श, ष, स और ह महाप्राण ध्वनियाँ हैं। हिन्दी में अल्पप्राण व्यंजन के साथ ‘ह’ जोड़ने पर महाप्राण ध्वनियाँ बनती हैं। संस्कृत में व्यंजन ध्वनियों को हल् कहा गया है। अत: व्यंजन ध्वनियाँ वर्णमाला में हलंत् होती हैं, उनमें ‘ह’ जोड़ने पर महाप्राण बनती हैं । जैसे-
न्+ह=न्ह
म्+ह=म्ह
क्+ह=ख
अनुस्वार ( ं ) एवं अनुनासिकता (ँ )
अनुस्वार और अनुनासिकता दोनों ही नासिक्य ध्वनियाँ हैं। परन्तु दोनों ध्वनियों में अन्तर है। जहाँ अनुस्वार पंचमाक्षर है अर्थात् वर्गीय ध्वनियों का पंचम वर्ण ङ, ञ, ण, न , म है, वहीं अनुनासिक ध्वनि स्वतंत्र ध्वनि नहीं बल्कि वह किसी न किसी स्वर के साथ ही प्रयुक्त होती है। अनुनासिक ध्वनियों के उच्चारण के समय मुखविवर में कोई अवरोध नहीं होता। केवल इसके उच्चारण के समय वायु नासिका व मुखविवर दोनों मार्गों से निकलती है। अतः अनुनासिक में स्वनिमिक गुण होता है, जबकि अनुस्वार स्वतंत्र व्यंजन ध्वनि हैं। अनुस्वार का चिह्न यह (ं )है तथा अनुनासिक का (ँ ) है। इनके भेद से अर्थ भेद सम्भव है,
जैसे-हंस-हँस, अंगना-अँगना आदि में जहाँ ‘हंस’ पक्षी है’ वहीं हँस का अर्थ हँसना धातु से है, अंगना का अर्थ जहाँ सुंदर स्त्री है, वही अँगना का अर्थ आंगन है।
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